मुंबई: यह देखते हुए कि लाउडस्पीकर का उपयोग किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने गुरुवार को राज्य को धर्म की परवाह किए बिना पूजा स्थलों द्वारा ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने का निर्देश दिया।
न्यायालय की टिप्पणी: “शोर विभिन्न पहलुओं में एक बड़ा स्वास्थ्य खतरा है। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि अगर उन्हें लाउडस्पीकर का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी गई तो उनके अधिकार किसी भी तरह से प्रभावित होंगे। यह सार्वजनिक हित में है कि ऐसी मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए।” ऐसी अनुमतियों से इनकार करने से, संविधान के अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) या 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के तहत अधिकारों का बिल्कुल भी उल्लंघन नहीं होता है, “जस्टिस अजय गडकरी और श्याम चांडक ने कहा।
ध्वनि प्रदूषण नियमों के तहत आवासीय क्षेत्रों (Residential areas) में शोर की सीमा दिन में 55 डेसिबल और रात में 45 डेसिबल है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंता: अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ध्वनि प्रदूषण महत्वपूर्ण स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है, और धार्मिक संदर्भों में लाउडस्पीकर के उपयोग को विनियमित करना सार्वजनिक हित में है।
उल्लंघन के विरुद्ध कार्रवाई: अदालत ने पुलिस आयुक्त को ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 का अनुपालन सुनिश्चित करते हुए धार्मिक संरचनाओं से ध्वनि प्रदूषण के संबंध में शिकायतों पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया।
पुलिस कार्रवाई के लिए दिशानिर्देश: पुलिस को शिकायतकर्ता की पहचान की आवश्यकता के बिना शिकायतों का जवाब देना चाहिए। अपराधियों को प्रारंभिक चेतावनी जारी की जानी चाहिए, साथ ही बाद के उल्लंघनों के लिए जुर्माना भी लगाया जाना चाहिए।
निष्कर्ष : अदालत ने सुझाव दिया कि राज्य को धार्मिक संस्थानों में उपयोग किए जाने वाले ध्वनि उत्सर्जक उपकरणों (sound-emitting devices) के डेसीबल स्तर को नियंत्रित करने के लिए तंत्र पर विचार करना चाहिए, जिसमें शोर के स्तर की निगरानी के लिए मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग भी शामिल है।
कानूनी ढांचा: ध्वनि प्रदूषण को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए पुलिस को महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम की प्रासंगिक धाराओं को लागू करना आवश्यक है।













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